छत्तीसगढ़ में कचरे से मिलेगा खाना: भारत के अनोखे कैफे की कहानी!

छत्तीसगढ़ में कचरे से मिलेगा खाना: भारत के अनोखे कैफे की कहानी!


सीजी न्यूज ऑनलाइन, 20 अगस्त। क्या आपने कभी सोचा कि कचरे से पेट भर सकता है? जी हाँ, भारत में ऐसा ही एक कमाल का आइडिया चल रहा है! आइए चलते हैं छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर शहर, जहां पहला “कचरा कैफे” लोगों को न सिर्फ खाना दे रहा है, बल्कि शहर को साफ भी कर रहा है।

कचरे का जादू !

सर्दियों की एक कोहरे भरी सुबह, जब हम अंबिकापुर के पहले कचरा कैफे पहुंचे, तो गर्म समोसों की खुशबू ने दिल जीत लिया। अंदर लोग लकड़ी की बेंचों पर बैठे थे, स्टील की थालियों में चावल, दो सब्जियां, दाल, रोटी, सलाद और अचार खा रहे थे। लेकिन हैरानी की बात ये कि यहाँ पैसे से नहीं, कचरे से भुगतान होता है!

यहाँ लोग प्लास्टिक कचरे जैसे पुराने थैले, रैपर और बोतलें लाते हैं। एक किलो प्लास्टिक पर आपको एक भरपेट भोजन मिलता है। आधा किलो प्लास्टिक लाने पर समोसा या vada pav जैसा नाश्ता मिलता है। ये कैफे अंबिकापुर नगर निगम (एएमसी) चलाता है, जो शहर की साफ-सफाई और सुविधाओ का ध्यान रखता है।

भूख और कचरे का समाधान

अंबिकापुर ने प्लास्टिक प्रदूषण और भूख जैसी दो बड़ी समस्याओं को हल करने का तरीका खोजा। 2019 में शुरू हुआ ये कैफे “जितना कचरा, उतना स्वाद” का नारा लेकर चला। गरीब लोग, बेघर और कचरा बीनने वाले रोज़ सड़कों से प्लास्टिक जमा करते हैं और बदले में गर्म खाना पाते हैं।

रश्मि मंडल नाम की एक स्थानीय महिला रोज़ सुबह सड़कों पर प्लास्टिक ढूंढती हैं। पहले वो इसे 10 रुपये किलो बेचती थीं, जो गुजारा करना मुश्किल था। अब वो कहती हैं कि अब मैं कचरे से अपने परिवार का खाना जुटा लेती हूँ। ये हमारे लिए बहुत बड़ा बदलाव है!

कितना फर्क पड़ा?

इस कैफे ने हर दिन 20 से ज्यादा लोगों का पेट भरा है। साथ ही, 2019 से अब तक करीब 23 टन प्लास्टिक इकट्ठा हुआ है। इससे शहर में लैंडफिल में जाने वाला प्लास्टिक 2019 के 5.4 टन से घटकर 2024 में 2 टन रह गया है। अंबिकापुर अब “जीरो लैंडफिल” शहर बन गया है, जहां कचरा डंपिंग ग्राउंड की जगह पार्क बन गए हैं।

जमा प्लास्टिक को रिसाइकिल करके सड़कें बनाई जाती हैं या बेचा जाता है। गीला कचरा खाद बनता है, और बचा हुआ कचरा सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होता है। नगर निगम के 20 कचरा सेंटरों पर 480 स्वच्छता दीदी महिलाएं कचरे को 60 से ज्यादा तरीकों से छांटती हैं और हर महीने 8,000-10,000 रुपये कमाती हैं।

और भी जगहों पर फैल रहा ये आइडिया

अब ये ट्रेंड पूरे भारत में फैल रहा है। पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी, तेलंगाना के मुलुगु, कर्नाटक के मैसूर और उत्तर प्रदेश में भी ऐसे प्रोग्राम शुरू हो गए हैं। दिल्ली में भी कोशिश हुई, लेकिन वहां ये ज्यादा सफल नहीं हुआ क्योंकि लोगों को इसके बारे में जानकारी कम थी।

क्या ये काफी है?

विशेषज्ञ कहते हैं कि ये एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन प्लास्टिक की ज्यादा पैदावार और गलत छंटाई जैसे बड़े मुद्दों को हल करने के लिए और कदम उठाने होंगे। फिर भी, अंबिकापुर मॉडल ने दिखाया कि छोटे-छोटे कदम भी बड़ा बदलाव ला सकते हैं।